न्यायालय को हमेशा न्याय का मंदिर कहा जाता है। यह वह जगह है जहाँ आम आदमी आख़िरी उम्मीद लेकर पहुँचता है। लेकिन 12 सितम्बर को दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में जो हुआ, उसने पूरे देश को हिला दिया। यहाँ काले कोट पहनने वाले कुछ लोग — जो कानून के रक्षक कहलाते हैं — खुद हमलावर बन गए।
मामला साफ़ है। हर्ष नाम का युवक अपनी 70 साल की माँ और बहन के साथ कोर्ट आया था। अपने ही वकील सैमुअल मसीह से उसने केस की फाइल माँगी। बस यहीं से विवाद शुरू हुआ। देखते ही देखते मसीह और उसके साथी वकीलों ने हर्ष पर हमला बोल दिया। भीड़ ने उसकी शर्ट फाड़ दी, उसे बेरहमी से पीटा, यहाँ तक कि उसकी आँख के पास चोट लग गई और खून बहने लगा। जब उसकी बुजुर्ग माँ बीच-बचाव के लिए आगे आईं, तो उन्हें धक्का देकर खींचा गया और बेटे से अलग कर दिया गया। हर्ष की बहन को भी जबरन पीछे धकेला गया।
और तो और, मारपीट के बाद इन वकीलों ने हर्ष के ही ख़िलाफ़ झूठे केस दर्ज करवा दिए — एक महिला वकील ने उस पर छेड़छाड़ और छीना-झपटी जैसे आरोप तक लगवा दिए। सोचिए, जिसे कोर्ट में पीटा गया, उसी को अपराधी बना दिया गया। यह सिर्फ़ अन्याय नहीं, अमानवीयता है।
जनता का ग़ुस्सा
सोशल मीडिया पर लोगों का ग़ुस्सा साफ़ झलक रहा है —
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“काले कोट में गुंडे — यह वकालत पेशे पर धब्बा है।”
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“अगर वकील ही हमलावर बन जाएँ तो आम आदमी कहाँ जाएगा?”
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“इस घटना ने न्यायपालिका पर से जनता का भरोसा तोड़ दिया है।”
ये टिप्पणियाँ सिर्फ़ शब्द नहीं, जनता का आक्रोश हैं। लोग अब सवाल सिर्फ़ एक वकील पर नहीं उठा रहे, बल्कि पूरे सिस्टम पर उँगली उठा रहे हैं।
संकट में व्यवस्था
यह कोई पहली बार नहीं है जब तीस हजारी कोर्ट विवादों में आया हो। छह साल पहले यहीं पार्किंग विवाद को लेकर वकीलों और दिल्ली पुलिस के बीच जमकर हिंसा हुई थी। गाड़ियाँ जलाई गईं, पुलिसकर्मी और वकील घायल हुए। और अब फिर से वही जगह शर्मनाक वजह से चर्चा में है — क्योंकि वहाँ न्याय नहीं, अन्याय हुआ।
अब ज़िम्मेदारी किसकी?
इस घटना को “छोटा झगड़ा” कहकर भुलाया नहीं जा सकता। बार काउंसिल और दिल्ली हाईकोर्ट को तुरंत सख़्त कार्रवाई करनी चाहिए। दोषी वकीलों को निलंबित करना और उनका लाइसेंस रद्द करना सबसे पहला कदम होना चाहिए। अदालतें आम जनता के लिए सुरक्षित स्थान हों, न कि डर और दबाव का अड्डा।
क्योंकि अगर न्याय देने वाले ही अन्याय करने लगें, तो लोकतंत्र की जड़ें हिल जाती हैं।
तीस हजारी कोर्ट की यह घटना सिर्फ़ हर्ष और उसकी माँ का मामला नहीं है — यह इस सवाल का जवाब मांगती है कि क्या हम न्याय के मंदिर में अन्याय को सह लेंगे?
